मन के हारे हार है
मन के जीते जीत
हार रहे हैं
कैसे बचाएं
कोशिशें भी नाक़ाम
गर मन ही हराये
घर करती हैं इतनी आवाज़ें
अपनी ही आहट पहचानी न जाये
सुकून का सौदा कर जब
मन नए मेहमान बसाए
शोर का सिलसिला
फ़िर काबू न हो पाये
चढ़ा दो सांकल किवाड़ में
कोई भीतर न आने पाए
अंधियारी रात है
उससे काले हैं मंडराते साये
हौसला कायम है अब तक
मग़र उम्मीद कहाँ से लाये
अपना आप ही जब लगे पराया
कोई और हमें कैसे अपनाये
बेहतर कल की आस में
हम आज गिरवी रख आये
नोंच लूँ अपनी आँखों से ख़्वाब
गर कोई नींद सिरहाने ले आये
मुस्कान का आडम्बर ही अच्छा है
आख़िर कब तक उन्हें समझाये
आख़िर कब तक यही दोहराएं?