फ़िक्शन

एक
विशाल
बरगद
का पेड़
और
उसके
इर्द गिर्द
चहचहाते
पंछी
उसकी
डालियों
पर रस्सी
डाले झूलते
नन्हें बालक
उसकी छांव
तले पैर
पसारते थके
हुए राहगीर
कुछ ऐसी
शुरूआत
थी मेरी
उन कहानियों
की जिन्हें
बचपन में
लिखा
करती
थी
आज
बच्चों की
ज़िद पर
जब अपनी
पुरानी डायरी
निकाली
तो इनके
दादा के दिए
हुए गुलाब
और चिट्ठीयां
भी गिर पड़ीं
गुलाब की
जगह
सूखी पंखुड़ियां
ले चुकी थीं
और
चिट्ठीयों पर
शब्दों की
जगह
रंग उड़ी
स्याही ने
जहाँ मैं
बीते कल
का हाथ
थामे बैठ गई
.
.
वहाँ ये बच्चे
मेरी डायरी
का राज़
जानने बैठ गए
और पहले
ही पृष्ठ
पर लिखे
मेरे शब्दों
को पढ़ कर
बोले,
“दादी
कितना
अच्छा
फ़िक्शन
लिखती थी न?”
