गुमसुम

गुमसुम है वो
कहीं खयालों में
किसी और के
या शायद खुद के ही
कल को लेकर
कुछ सवालों में
जब भी देखता हूँ
गुमसुम ही
पाता हूँ उसे
जैसे किसी कहानी की
शुरुआत को लेकर
क़लम और ज़ुबान
दोनों ही निशब्द हो
जैसे किसी गीत के
बोल याद नहीं
मग़र धुन कानों में
गूँज रही हो
जैसे किसी घर की ओर
बिना जतन के
कदम अपने आप
बढ़ चलते हों
जैसे किसी का चेहरा
भुलाये जाने के
बाद भी
याद आ रहा हो
बस इसी तरह
उसे देखा करता हूँ
बस इसी तरह
उसे लिखा करता हूँ
गुमसुम है वो
कहीं खयालों में
किसी और के
या शायद खुद के ही
कल को लेकर
कुछ सवालों में
जब भी देखता हूँ
गुमसुम ही
पाता हूँ उसे
जैसे,
न जाने कैसे।
