जिसे अपना ही प्रतिबिम्ब अनजाना नज़र आ रहा हो
उसे किसी और के बदल जाने का अफ़सोस क्या ख़ाक होगा
जिसे अपनी ही अपेक्षाओं का बोझ सता रहा हो
उसे किसी और की नज़रों में गिरने का डर क्या ख़ाक होगा
जिसके अपने ही ह्रदय में ख़ालीपन भर गया हो
उसे किसी और की बेरुख़ी का ग़म क्या ख़ाक होगा
जिसकी अपनी जिह्वा ही विश्राम कर रही हो
उसे किसी और की ख़ामोशी का रंज क्या ख़ाक होगा
जिसकी अपनी ही आस्तीन में सांप पल रहा हो
उसे किसी और का खंजर पीठ में क्या ख़ाक चुभेगा
जिसकी अपनी ही ज़िंदगी उस पर कटाक्ष कर रही हो
उसे किसी और का व्यंग्य कसना क्या ख़ाक दुखेगा
जिसे अपने ही गिरेबां में झांकने पर दाग नज़र आ रहा हो
उसे किसी और का उंगली उठाना मायूस क्या ख़ाक करेगा
जिसे अपना ही प्रतिबिम्ब अनजाना नज़र आ रहा हो
उसे किसी और के बदल जाने का डर क्या ख़ाक लगेगा