मैं लिखती रहूंगी

कभी कागज़ पर स्याही से
तो कभी रेत पर उंगलियों से
घावों को कुरेदा करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी दोपहर की परछाइयों से
तो कभी रात के सायों से
सवालों के जवाब पूछा करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी बोतलों में कैद चीखों से
तो कभी उनमुक्त विचारों से
खुद ही खुद से लड़ा करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी चाय के प्यालों से
तो कभी घर के ख़यालों से
कहानियों को तराशा करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी अनजान शहर से
तो कभी अपने गांव से
किस्सों का उधार चढ़ाया करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी सच्चाई से
तो कभी मिथ्या से
तुम्हारा मन बहलाया करूँगी
मैं, लिखती रहूंगी
कभी खुद से
तो कभी तुम से
लम्हें चुराया करूँगी
और उन्हें मैं, लिखती रहूंगी।
