पतझड़ का
मौसम आते ही जैसे
एक पत्ता अपनी
डाली से वियुक्त होने
के लिए आतुर हो
उठता है
शायद नहीं जानता
कि समाज उसके
नाज़ुक ह्रदय के
विपरीत बड़ा कठोर
हो चुका है
शायद नहीं मानता
कि उसकी आज़ादी
का कर्ज़ अपने सुकून
से अदा करना पड़
सकता है
शायद नहीं चाहता
कि उसका जीवन
उसी वृक्ष तक सिमट
कर रह जाए जहाँ
वो जन्मा था
शायद इसलिए
हर पतझड़ के
मौसम की दस्तक
सुनते ही वृक्ष का
हर एक पत्ता अपनी
डाली से वियुक्त होने
के लिए आतुर हो
उठता है
और सब पीछे छोड़
निकल पड़ता है
एक बेहतर जीवनशैली
की आस में
और एक बेहतर जिंदगी
की तलाश में।