शोर

आज शोर बहुत है
भोर तलक ही रुदन की आवाज़ जो शुरू हुई
सांझ ढलने तक थमी ही नहीं
सांझ ढलते ही कोप की चिंगारी ऐसे सुलगी
रात की चांदनी तले बुझी ही नहीं
आज शोर बहुत है
अगली रोज़ जब चाय के साथ तेवर भी गर्म हुए
दोपहर तक ठंडक मिली ही नहीं
दोपहर में साँसों की रफ़्तार ने धड़कन को ऐसी मात दी
शाम तक राहत ने दस्तक दी ही नहीं
सुना है आज आंधी आई है
मेरे अंतर्मन का मौसम वर्तमान में जो चढ़ा
मशक्कतों के बाद भी उतरा ही नहीं
सुना है आज शोर बहुत है
अन्तर्दद्वंद्व में कैद ये मन कुछ ऐसे भागा
आंधी रुकने के बाद भी लौटा ही नहीं
आज शोर बहुत है
शायद तुम्हें सुनाई न दिया हो
या सुनकर भी तुमने सुना ही नहीं।
